Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

झूटी कहानी

सआदत हसन मंटो

झूटी कहानी

सआदत हसन मंटो

MORE BYसआदत हसन मंटो

    स्टोरीलाइन

    इस कहानी में एक काल्पनिक बदमाशों की अंजुमन के ज़रिये सियासतदानों पर गहरा तंज़ किया गया है। बदमाशों की अंजुमन क़ाएम होती है और बदमाश अख़बारों के ज़रिये अपने अधिकारों की माँग करते हैं तो उनकी रोक-थाम के लिए एक बड़े हाल में जलसा किया जाता है जिसमें सियासतदाँ और शहर के बड़े लोग बदमाशों की अंजुमन के ख़िलाफ़ तक़रीरें करते हैं। आख़िर में पिछली पंक्ति से अंजुमन का एक नुमाइंदा खड़ा होता है और ग़ालिब के अश्आर की मदद से अपनी दिलचस्प तक़रीर से सियासतदानों पर तंज़ करता है और उनकी कार्यशैली पर सवालिया निशान लगाता है।

    कुछ अर्से से अक़ल्लियतें अपने हुक़ूक़ के तहफ़्फ़ुज़ के लिए बेदार हो रही थीं। उनको ख़्वाब-ए-गिरां से जगाने वाली अक्सरियतें थीं जो एक मुद्दत से अपने ज़ाती फ़ायदे के लिए उन पर दबाव डालती रही थीं। इस बेदारी की लहर ने कई अंजुमनें पैदा करदी थीं। होटल के बेरों की अंजुमन, हज्जामों की अंजुमन, क्लर्कों की अंजुमन, अख़बार में काम करने वाले सहाफ़ीयों की अंजुमन। हर अक़ल्लियत अपनी अंजुमन या तो बना चुकी थी या बना रही थी ताकि अपने हुक़ूक़ की हिफ़ाज़त कर सके।

    ऐसी हर अंजुमन के क़ियाम पर अख़बारों में तब्सिरे होते थे। अक्सरियत के हिमायती उनकी मुख़ालिफ़त करते थे और अक़ल्लियत के तरफ़दार मुवाफ़िक़त। ग़रज़ कि कुछ अर्से से एक अच्छा ख़ासा हंगामा बरपा था जिससे रौनक़ लगी रहती थी, मगर एक रोज़ जब अख़बारों में ये ख़बर शाये हुई कि मुल्क के दस नंबरिए गुंडों ने अपनी अंजुमन क़ायम की है तो अक्सरियतें और अक़ल्लियतें दोनों सनसनी ज़दा हो गईं।

    शुरू शुरू में तो लोगों ने ख़याल किया कि बे पर की उड़ा दी है किसी ने। पर जब बाद में इस अंजुमन ने अपने अग़राज़-ओ-मक़ासिद शाया किए और एक बाक़ायदा मंशूर तर्तीब दिया तो पता चला कि ये कोई मज़ाक़ नहीं। गुंडे और बदमाश वाक़ई ख़ुद को इस अंजुमन के साये तले मुत्तहिद और मुनज़्ज़म करने का पूरा पूरा तहय्या कर चुके हैं।

    इस अंजुमन की एक दो मीटिंगें हो चुकी थीं, इनकी रूदाद अख़बारों में शाया हो चुकी थी। लोग पढ़ते और दमबख़ुद हो जाते। बा’ज़ कहते कि बस अब क़ियामत आने में ज़्यादा देर बाक़ी नहीं।

    अग़राज़-ओ-मक़ासिद की एक लंबी-चौड़ी फ़ेहरिस्त थी जिसमें यह कहा गया था कि गुंडों और बदमाशों की ये अंजुमन सबसे पहले तो इस बात पर सदा-ए-एहतिजाज बुलंद करेगी कि मुआशरे में उनको नफ़रत-ओ-हक़ारत की नज़र से देखा जाता है।

    वो भी दूसरों की तरह बल्कि उनके मुक़ाबले में कुछ ज़्यादा अमन पसंद शहरी हैं। उनको गुंडे और बदमाश कहा जाये इसलिए कि इससे उनकी ज़लील-ओ-तौहीन होती है। वो ख़ुद अपने लिए कोई मुनासिब और मुअज़्ज़िज़ नाम तजवीज़ कर लेते। मगर इस ख़याल कि अपने मुँह मियां मिट्ठू की कहावत उन पर चस्पाँ ना हो, वो इसका फ़ैसला अवाम-ओ-ख़वास पर छोड़ते हैं।

    चोरी-चकारी, डकैती और रहज़नी, जेबतराशी और जालसाज़ी, पत्ते बाज़ी और ब्लैक मार्केटिंग वग़ैरा, अफ़आल-ए-क़बीहा के बजाय फ़ुनून-ए-लतीफ़ा में शुमार होने चाहिऐं। इन लतीफ़ फ़ुनून के साथ अब तक जो बुरा सुलूक रवा रखा गया है उसकी मुकम्मल तलाफ़ी इस यूनीयन का नस्ब-उल-ऐन है।

    ऐसे ही कई और अग़राज़-ओ-मक़ासिद थे जो सुनने और पढ़ने वालों को बड़े अजीब-ओ-ग़रीब मालूम होते थे। बज़ाहिर ऐसा था कि चंद बे-फ़िक्र ज़रीफ़ों ने लोगों की तफ़रीह के लिए ये सब बातें घड़ी हैं। ये चुटकुला ही तो मालूम होता था कि यूनीयन अपने मिम्बरों की क़ानूनी हिफ़ाज़त का ज़िम्मा लेगी और उनकी सरगर्मीयों के लिए साज़गार और ख़ुशगवार फ़िज़ा पैदा करने के लिए पूरी पूरी जद्द-ओ-जहद करेगी। वो हुक्काम-ए-वक़्त पर ज़ोर देगी कि यूनीयन के हर रुक्न पर उसके मुक़ाम और रुतबे के लिहाज़ से मुक़द्दमा चलाए जाये और सज़ा देते वक़्त भी उसको पेश-ए-नज़र रखा जाये।

    हुकूमत लोगों को अपने घरों में चोरों का बर्क़ी अलार्म लगाने दे इसलिए कि बा’ज़ औक़ात ये हलाकत ख़ेज़ साबित होता है। जिस तरह सियासी क़ैदियों को जेल में और बी क्लास की मुराआत दी जाती हैं, उसी तरह यूनीयन के मेम्बरों को दी जाएं।

    यूनीयन इस बात का भी ज़िम्मा लेती थी कि वो अपने मेम्बरों को ज़ईफ़ और नाकारा या किसी हादिसे का शिकार हो जाने की सूरत में हर माह गुज़ारे के लिए माक़ूल रक़म देगी। जो मेम्बर किसी ख़ास शोबे में महारत हासिल करने के लिए बाहर के ममालिक में जाना चाहेगा उसे वज़ीफ़ा देगी, वग़ैरा वग़ैरा।

    ज़ाहिर है कि अख़बारों में इस यूनीयन के क़ियाम पर ख़ूब तब्सिरे बाज़ी हुई। क़रीब-क़रीब सब इसके ख़िलाफ़ थे। बा’ज़ रजअत पसंद कहते थे कि ये कम्युनिज़्म की इंतिहाई शक्ल है और इसके बानियों के डांडे क्रिमनल से मिलाते थे। हुकूमत से चुनांचे बार-बार दरख़ास्त की जाती कि वो इस फ़ित्ने को फ़ौरन कुचल दे, क्योंकि अगर इसको ज़रा भी पनपने का मौक़ा दिया गया तो मुआशरे में ऐसा ज़हर फैलेगा कि इसका तिरयाक मिलना मुश्किल हो जाएगा।

    ख़याल था कि तरक़्क़ी पसंद इस यूनीयन की तरफदारी करेंगे कि इसमें एक जिद्दत थी और पुरानी क़दरों से हट कर इसने अपने लिए एक बिल्कुल नया रास्ता तलाश किया था और फिर ये कि रजअत पसंद उसे कम्युनिस्टों की इख़तिरा समझते थे मगर हैरत ये कि अक़ल्लियतों के ये सबसे बड़े तरफ़दार पहले तो इस मुआमले में ख़ामोश रहे और बाद में दूसरों के हमनवा हो गए और इस यूनीयन की बीख़कनी पर ज़ोर देने लगे।अख़बारों में हंगामा बरपा हुआ तो मुल्क के गोशे-गोशे में इस यूनीयन के क़ियाम के ख़िलाफ़ जलसे होने लगे।

    क़रीब-क़रीब हर पार्टी के नामी-ओ-गिरामी लीडरों ने प्लेटफार्म पर आकर इस नंगे तहज़ीब-ओ-तमद्दुन जमात को मलऊन क़रार दिया और कहा कि यही वक़्त है जब तमाम लोगों को अपने आपस के झगड़े छोड़कर इस फ़ित्न-ए-अज़ीम का मुक़ाबला करने के लिए इत्तिहाद, नज़्म और यक़ीन-ए-मोहकम को अपना मोटो बना कर डट जाना चाहिए।

    इस सारे हंगामे का जवाब यूनीयन की तरफ़ से एक पोस्टर के ज़रिये से दिया गया जिसमें बड़े इख़्तिसार के साथ ये कहा गया कि प्रेस अक्सरियत के हाथ में है। क़ानून उसकी पुश्त पर है, मगर अंजुमन के हौसले और इरादे पस्त नहीं हुए, वो कोशिश कर रही है कि बहुत सी रक़म दे कर कुछ अख़बार ख़रीद ले और उनको अपने हक़ में कर ले।

    ये पोस्टर मुल्क के दर-ओ-दीवार पर नुमूदार हुआ, तो फ़ौरन बाद कई शहरों से बड़ी बड़ी चोरियों और डकैतियों की इत्तिलाएं वसूल हुईं और इसके चंद रोज़ बाद जब एका एकी दो अख़बारों ने दबी ज़बान में गुंडों और बदकारों की यूनीयन के अग़राज़-ओ-मक़ासिद में इस्लाही पहलू कुरेदना शुरू किया तो लोग समझ गए कि पस-ए-पर्दा क्या हुआ है।

    पहले इन दो अख़बारों की इशाअत होने होने के बराबर थी। निहायत ही घटिया काग़ज़ पर छपते थे। लेकिन देखते ही देखते कुछ ऐसी कायाकल्प हुई कि लोग दंग रह गए।

    सबसे अच्छा एडिटोरियल स्टाफ़ इन दो पर्चों के पास था। दफ़्तर में एक के बजाय दो-दो टेलीप्रिंटर थे। तनख़्वाह मुक़र्ररा वक़्त से पहले मिल जाती थी। बोनस अलग मिलता था।

    घर का अलाउन्स, टांगे का अलाउन्स, सिगरटों का अलाउन्स, चाय का अलाउन्स, महंगाई अलाउन्स। ये सब अलाउन्स मिल कर तनख़्वाह से दोगुने हो जाते थे। जो दुख़त-ए-रज़ के रसिया थे, उन को मुफ़्त परमिट मिलता था और बेहतरीन स्काच विस्की कंट्रोल्ड क़ीमत पर दस्तयाब होती थी।

    अमले के हर आदमी से बाक़ायदा कंट्रैक्ट किया गया था जिसमें मालिक की तरफ़ से ये इक़रार था कि उसके घर में कभी चोरी हुई, या उसकी जेब काट ली गई तो उसे नुक़्सान के इलावा हर्जाना भी अदा किया जाएगा।

    इन दो अख़बारों की इशाअत से देखते-देखते हज़ारों तक पहुंच गए। तअज्जुब है कि पहले जब उनकी इशाअत कुछ भी नहीं थी तो ये हर रोज़ कसीर-उल-इशाअत होने के बलंद-बाँग दावे करते थे, मगर जब उनकी कायाकल्प हुई तो इस मुआमले में बिल्कुल ख़ामोश होगए। ब-यक-वक़्त अलबत्ता इन दोनों अख़बारों ने कुछ अर्से के बाद ये ऐलान छापा कि हमारी इशाअत इस हद तक जा पहुंची है कि अगर हमने इससे तजावुज़ किया तो तिजारती नुक़्ता-ए-नज़र से नुक़्सान ही नुक़्सान है।

    उनके इल्मी-ओ-अदबी एडिशनों में अजीब-ओ-ग़रीब मौज़ूआत पर मज़मून शाया होते थे, ये चार-पाँच तो बड़े ही सनसनीखेज़ थे।

    ब्लैक मार्कीट के फ़वाइद... मआशियात की रोशनी में।

    मुआशरती और मजलिसी दायरे में क़हबाख़ानों की अहमियत।

    दरोग़ गो रा हाफ़िज़ा बाशद... जदीद साइंटिफिक तहक़ीक़।

    बच्चों में क़तल-ओ-ग़ारत गिरी के फ़ित्री रुजहानात... सियादत पर सैर हासिल तबर्रा।

    दुनिया के ख़ौफ़नाक डाकू और तक़दीस-ए-मज़हब।

    इश्तिहार भी कम अजीब-ओ-ग़रीब नहीं थे। इनमें मुश्तहिर का नाम और पता नहीं होता था। सुर्खियां दे कर मतलब की मुख़्तसर लफ़्ज़ों में अदा करदी जाती थी। चंद सुर्खियां मुलाहिज़ा हों।

    चोरी के ज़ेवरात ख़रीदने से पहले हमारा निशान ज़रूर देख लिया करें जो खरे माल की ज़मानत है।

    ब्लैक मार्कीट में सिर्फ़ उसी फ़िल्म के टिकट फ़रोख़्त किए जाते हैं जो तफ़रीह का बेहतरीन सामान पेश करता है।

    दूध में किन तरीक़ों से मिलावट की जाती है। रिसाला दूध का दूध, पानी का पानी, मुताला फ़रमाईए।

    टोने-टोटके, गंडे और तावीज़, अमल-ए-हमज़ाद और तस्ख़ीर महबूब के जंत्र-मंत्र सब झूटे हैं। ख़ुद को धोका देने के बजाय माशूक़ को धोका दीजिए।

    खाने पीने की सिर्फ़ वो चीज़ें ख़ीरीदिए जिनमें ज़रर रसां चीज़ों की मिलावट हो।

    एक अलग कालम में ब्लैक मार्कीट के आज के भाव के उनवान तले उन तमाम चीज़ों की कंट्रोल्ड क़ीमत दर्ज होती थी जो सिर्फ़ ब्लैक मार्कीट से दस्तयाब होती थीं। लोगों का कहना था कि इन क़ीमतों में एक पाई की भी कमी-बेशी नहीं होती। जो छुपे-चोरी, चोरी का ख़ास निशान लगाया हुआ माल खरीदते थे उन्हें अर्ज़ां क़ीमत पर सोलह आने खरा माल मिलता था।

    गुंडों, चोरों और बदकारों की अंजुमन जब आहिस्ता-आहिस्ता नेकनामी हासिल करने लगी तो अरबाब-ए-बस्त-ओ-कशाद की तशवीश दो चंद होगई। हुकूमत ने अपनी तरफ़ से खु़फ़ीया तौर पर बहुत कोशिश की कि उसके अड्डे का सुराग़ लगाए मगर कुछ पता चला।

    यूनीयन की तमाम सरगर्मियां ज़ेर-ए-ज़मीन यानी अंडर ग्राऊड थीं। ऊंची सोसाइटी के चंद अराकीन का ख़याल था कि पुलिस के बा’ज़ बद-क़िमाश अफ़सर इस यूनीयन से मिले हुए हैं बल्कि इसके बाक़ायदा मेम्बर हैं और हर माह अपनी नाजायज़ ज़राए से पैदा की हुई आमदन का बेशतर हिस्सा बतौर जज़िया के देते हैं।

    यही वजह है कि क़ानून का नशतर मुआशरे के इस निहायत ही मोहलिक फोड़े तक नहीं पहुंच सका... जितने मुँह उतनी बातें। मगर ये बात काबिल-ए-ग़ौर थी कि अवाम में जो इस यूनीयन के क़ियाम से बेचैनी फैली थी अब बिल्कुल मफ़क़ूद थी। मुतवस्सित तबक़ा उसकी सरगर्मियों में बड़ी दिलचस्पी ले रहा था। सिर्फ़ ऊंची सोसाइटी थी जो दिन-ब-दिन ख़ाइफ़ होती जा रही थी।

    इस यूनीयन के ख़िलाफ़ यूं तो आए दिन तक़रीरें होती थीं और जगह जगह जलसे मुनअक़िद हुए थे, मगर अब वो पहला सा जोश-ओ-ख़रोश नहीं था। चुनांचे उसको अज़-सर-ए-नौ शदीद बनाने के लिए टाउन हाल में एक अज़ीमुश्शान जल्से के इनइक़ाद का ऐलान किया गया।

    क़रीब क़रीब हर शहर की मुअज्ज़िज़ हस्तियों को नुमाइंदगी के लिए मदऊ किया गया। मक़सद इस जल्से का ये था कि इत्तिफ़ाक़-ए-राय से गुंडों, शुहदों और बदकारों की इस यूनीयन के ख़िलाफ़ मुज़म्मत का वोट पास किया जाये और अवामुन्नास को उन ख़ौफ़नाक जरासीम से कमाहक़्क़हु आगाह किया जाये जो इसके वजूद से मुआशरती मजलिसी दायरे में फैल चुके हैं और बड़ी सुरअत से फैल रहे हैं।

    जल्से की तैयारी पर हज़ारों रुपये ख़र्च किए गए। मजलिस-ए-इंतिज़ामिया और मजलिस-ए-इस्तिक़बालिया ने मंदूबीन के आराम-ओ-आसाइश के लिए हर मुम्किन सहूलत मुहय्या की।

    कई इजलास हुए और बड़े कामयाब रहे। उनकी रिपोर्ट यूनीयन के पर्चों में मिन-ओ-अन शाया होती रही। मुज़म्मत के जितने वोट पास हुए, बिला तब्सिरा छपते रहे। दोनों अख़बारों में उनको नुमायां जगह दी जाती थी।

    आख़िरी इजलास बहुत अहम था। मुल्क की तमाम मुकर्रम-ओ-मुअज़्ज़म हस्तियां जमा थीं। उमरा-ओ-वज़रा सब मौजूद थे। हुकूमत के आला आला अफ़सर भी मदऊ थे।

    बड़े ज़ोरदार अल्फ़ाज़ में तक़रीरें हुईं और मज़हबी, मजलिसी, मआशी, जमालियाती और नफ़्सियाती ग़रज़ कि हर मुम्किन नुक़्त-ए-नज़र से गुंडों और बदमाशों की तंज़ीम के ख़िलाफ़ दलायल-ओ-बराहीन पेश किए गए और साबित कर दिया गया कि इस तबक़-ए-असफ़ल का वजूद हयात-ए-इंसानी के हक़ में ज़हर-ए-क़ातिल है।

    मुज़म्मत का आख़िरी रेजुलेशन जो बड़े बा-असर अल्फ़ाज़ पर मुश्तमिल था इत्तिफ़ाक़-ए-राय से पास हुआ तो हाल तालियों के शोर से गूंज उठा। जब थोड़ा सुकून हुआ तो पिछले बंचों में एक शख़्स खड़ा हुआ। उसने सदर से मुख़ातिब हो कर कहा, “साहब-ए-सदर, इजाज़त हो तो मैं कुछ अर्ज़ करना चाहता हूँ।”

    सारे हाल की निगाहें उस आदमी पर जम गईं। सदर ने बड़ी तमकनत से पूछा, “मैं पूछ सकता हूँ आप कौन हैं?”

    उस शख़्स ने जो बड़े सादा मगर ख़ुशवज़ा कपड़ों में मलबूस था, ताज़ीम के साथ कहा, “मुल्क-ओ-मिल्लत का एक अदना तरीन ख़ादिम।”और कोर्निश बजा लाया।

    सदर ने चशमा लगा कर उसे ग़ौर से देखा और पूछा, “आप क्या कहना चाहते हैं।”

    इस मुअम्मा नुमा मर्द ने मुस्कुरा कर कहा, “कि... हम भी मुँह में ज़बान रखते हैं।”

    इस पर सारे हाल में चे मिगोईयां होने लगीं। डायस पर ख़ुसूसन सबके सब मोअज़्ज़िज़ीन और क़ाइदीन सवालिया निशान बन कर एक दूसरे की तरफ़ देखने लगे।

    सदर ने अपनी तमकनत को ज़रा और तमकीन बना कर पूछा, “आप कहना क्या चाहते हैं?”

    “मैं अभी अर्ज़ करता हूँ।” ये कह कर उसने जेब से एक बेदाग़ सफ़ेद रूमाल निकाला। अपना मुँह साफ़ किया और उसे वापस जेब में रख कर बड़े पार्लिमानी अंदाज़ में गोया हुआ, “साहिब-ए-सदर और मुअज़्ज़ज़ हज़रात...”

    डाइस के एक तरफ़ देख कर वो रुक गया। “माफ़ी का तलबगार हूँ... मुहतरमा बेगम मर्ज़बान खिलाफ-ए-मामूल आज पिछले सोफे पर तशरीफ़ फ़र्मा हैं... साहिब-ए-सदर, ख़ातून मुकर्रम और मुअज़्ज़ज़ हज़रात!”

    बेगम मर्ज़बान ने वेनिटी बैग में से आईना निकाल कर अपना मेकअप देखा और ग़ौर से सुनने लगी। बाक़ी भी हमातन गोश थे।

    “हरीफ़-ए-मतलब मुश्किल नहीं फुसूँ-ए-नयाज़

    दुआ क़बूल हो यारब कि उम्र-ए-ख़िज्र दराज़

    कुछ देर रुक कर वो एक अदा से मुस्कुराया। “हज़रत ग़ालिब!... इस इजलास में और इससे पहले मजलिसी दायरे के एक मफ़रूज़ा तबक़-ए-असफ़ल के बारे में जो ज़हर फ़िशानी की गई है, आपके इस ख़ाकसार ने बड़े ग़ौर से सुनी है।”

    सारे हाल में खुसर-फुसर होने लगी। सदर की नाक के बांसे पर चशमा फिसल गया, “आप हैं कौन?”

    सर के एक हल्के से ख़म के साथ उस शख़्स ने जवाब दिया, “मुल्क-ओ-मिल्लत का एक अदना ख़ादिम... मजलिसी दायरे के मफ़रूज़ा तबक़ा-ए-असफ़ल की जमात का एक रुक्न जिसे उसकी नुमाइंदगी का फ़ख़्र हासिल है!”

    हाल में किसी ने ज़ोर से “वाह” कहा और ताली बजाई। चोरों, उचक्कों और गुंडों की यूनीयन के नुमाइंदे ने सर को फिर हल्की सी जुंबिश दी और कहना शुरू किया, “क्या अर्ज़ करूं। कुछ कहा नहीं जाता;

    वां गया भी मैं तो उनकी गालियों का क्या जवाब

    याद थीं जितनी दुआएं सर्फ-ए-दरबां होगईं

    इस इजलास में इस जमात के ख़िलाफ़ जिसका ये ख़ाकसार नुमाइंदा है इस क़दर गालियां दी गई हैं। इस क़दर लानत-मलामत की गई है कि सिर्फ़ इतना कहने को जी चाहता है;

    लो वो भी कहते हैं ये बेनंग-ओ-नाम है

    साहब-ए-सदर-ए-मुहतरम, बेगम मरज़बान और मुअज्ज़ज़ हज़रात!

    बेगम मर्ज़बान की लिपस्टिक मुस्कुराई। बोलने वाले ने आँखें और सर झुका कर तस्लीम अर्ज़ किया, “मुहतरम बेगम मर्ज़बान और मुअज्ज़िज़ हज़रात... मैं जानता हूँ कि यहां मेरी जमात का कोई हमदर्द मौजूद नहीं। आप में से एक भी ऐसा नहीं जो हमारा तरफ़दार हो।

    दोस्त गर कोई नहीं है जो करे चारागरी

    ना सही एक तमन्ना-ए-दवा है तो सही

    डायस पर एक अचकन पोश रईस गले में पान दबा कर बोले, “मुकर्रर!”

    सदर ने जब उनकी तरफ़ सरज़निश भरी नज़रों से देखा तो वो ख़ामोश होगए।

    चोरों और बदकारों की यूनीयन के नुमाइंदे के पतले पतले होंटों पर शफ़्फ़ाफ़ मुस्कुराहट नमूदार हुई, “मैं अपनी मख़्तसर तक़रीर में जो शे’र भी इस्तेमाल करूंगा... हज़रत ग़ालिब का होगा!”

    बेगम मर्ज़बान ने बड़े भोलपन से कहा, “आप तो बड़े लायक़ मालूम होते हैं।”

    बोलने वाला कोर्निश बजा लाया और मुस्कुरा कर कहने लगा,

    “सीखे हैं मह रुख़ों के लिए हम मुसव्विरी

    तक़रीब कुछ तो बहर-ए-मुलाक़ात चाहिए!”

    सारा हाल क़हक़हों और तालियों से गूंज उठा। बेगम मर्ज़बान ने उठ कर सदर के कान में कुछ कहा जिसने हाज़िरीन को चुप रहने का हुक्म दिया। ख़ामोशी हुई तो चोरों और लफंगों की यूनीयन के नुमाइंदे ने फिर बोलना शुरू किया।

    साहब-ए-सदर मुहतरम, बेगम मर्ज़बान और मुअज़्ज़ज़ हज़रात

    गरचे है किस किस बुराई से दिले ईं हमा

    ज़िक्र मेरा मुझसे बेहतर है कि इस महफ़िल में है

    लेकिन सच् पूछिए तो इससे तसल्ली नहीं होती। मैं तअस्सुफ़ का इज़हार किए बग़ैर नहीं रह सकता कि उस तबक़े के साथ जिसकी नुमाइंदगी मेरी जमात करती है निहायत बे-इंसाफ़ी हुई है। इसको अब तक बिल्कुल ग़लत रंग में देखा जाता रहा है और यही कोशिश की जाती रही कि उसे मलऊन-ओ-मतऊन क़रार दे कर ख़ारिज अज़ समाज कर दिया जाये। मैं इन मुतह्हर हस्तीयों को क्या कहूं जिन्होंने इस शरीफ़ और मुअज़्ज़ज़ तबक़े को संगसार करने के लिए पत्थर उठाए हैं;

    आतश-कदा है सीना मिरा राज़-ए-निहां से

    वाय अगर मअरिज़-ए-इज़हार में आवे”

    सदर ने दफ़अतन गरज कर कहा, “ख़ामोश... बस अब आपको मज़ीद बोलने की इजाज़त नहीं है।”

    मुक़र्रिर ने मुस्कुरा कर कहा, “हज़रत ग़ालिब की इसी ग़ज़ल का एक शे’र है;

    दे मुझको शिकायत की इजाज़त कि सितमगर

    कुछ तुझको मज़ा भी मरे आज़ार में आवे

    हाल तालियों के शोर से गूंज उठा। सदर ने इजलास बर्ख़ास्त करना चाहा मगर लोगों ने कहा कि नहीं चोरों और गुंडों की यूनीयन के नुमाइंदे की तक़रीर ख़त्म हो जाये तो कार्रवाई बंद की जाये।

    सदर और दूसरे अराकीन-ए-इजलास ने पहले आमादगी ज़ाहिर की लेकिन राय-आम्मा के सामने उन्हें झुकना पड़ा। मुक़र्रिर को बोलने की इजाज़त मिल गई।

    उसने साहिब-ए-सदर का मुनासिब-ओ-मौज़ूं अल्फ़ाज़ में शुक्रिया अदा किया और कहना शुरू किया, “हमारी यूनीयन को सिर्फ़ इसलिए नफ़रत-ओ-तहक़ीर की तरफ़ से देखा जाता है कि ये चोरों, उठाई गीरों, रहज़नों और डाकुओं की अंजुमन है जो उनके हुक़ूक़ के तहफ़्फ़ुज़ के लिए क़ायम की गई है। मैं आप लोगों के जज़्बात बख़ूबी समझता हूँ।

    “आप का फ़ौरी रद्द-ए-अमल किस क़िस्म का था, मैं इस का तसव्वुर भी कर सकता हूँ, मगर चोरों, डाकूओं और रहज़नों के हुक़ूक़ क्या नहीं होते? या नहीं हो सकते? मैं समझता हूँ कोई सलीमुद्दिमाग़ म्युनिसिपल कमिशनर हैं, वज़ीर-ए-दाख़िला हैं या ख़ारिजा।

    “इसी तरह वो भी सबसे पहले आप ही की तरह इंसान है। चोर, डाकू, उठाई गीरा, जेबकतरा और ब्लैक मार्किटर बाद में है। जो हुक़ूक़ दूसरे इंसानों को इस सक़्फ़-ए-नीलोफ़री के नीचे मुहय्या हैं, वो उसे भी मुहय्या और होने चाहिऐं। जिन नेअमतों से दूसरे इंसान मुतमत्ते होते हैं